ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत: |
प्रोच्यते गुणसङ् ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि || 19||
ज्ञानम्-ज्ञान; कर्म-कर्म; च-और; कर्ता-कर्ता; च-भी; त्रिधा–तीन प्रकार का; एव–निश्चय ही; गुण-भेदतः-प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार; प्रोच्यते-कहे जाते हैं; गुण-सड्. ख्याने सांख्य दर्शन, जो प्रकृति के गुणों का वर्णन करता हैं; यथा-वत्-जिस रूप में हैं उसी में; शृणु-सुनो; तानि-उन सबों को; अपि-भी।
BG 18.19: सांख्य दर्शन में ज्ञान, कर्म और कर्ता की तीन श्रेणियों का उल्लेख किया गया है और तदनुसार प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार इनका भेद निरूपित किया गया है। इन्हें सुनो।
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श्रीकृष्ण एक बार पुनः प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन करते हैं। 14वें अध्याय में उन्होंने इन तीन गुणों का परिचय दिया था और बताया था कि किस प्रकार से ये आत्मा को जन्म और मृत्यु के संसार में बांधे रखते हैं। फिर 17वें अध्याय में उन्होंने यह बताया था कि किस प्रकार से ये तीनों गुण लोगों की श्रद्धा और उनके भोजन को प्रभावित करते हैं। उन्होंने यज्ञ, दान और तपस्या की तीन श्रेणियों की भी व्याख्या की थी। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण तीन गुणों के अनुसार तीन प्रकार के ज्ञान, कर्म और कर्ता की विवेचना करेंगे।
भारतीय दर्शन शास्त्र की छः विचार पद्धतियों में से एक सांख्य दर्शन जिसे पुरुष प्रकृतिवाद भी कहा जाता है, को प्रकृति के विश्लेषण में प्रमाण में स्वीकार किया जाता है। इसमें आत्मा को पुरुष कहा जाता है। इसमें पुरुष बहुत्ववाद का सिद्धांत है। प्रकृति एक भौतिक शक्ति है जिसमें सभी भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित हैं।
सांख्य दर्शन में वर्णित है कि पुरुष द्वारा प्रकृति का भोग करने की इच्छा ही सभी दुःखों का मूल कारण है। जब यह भोग प्रवृत्ति शांत हो जाती है तब पुरुष माया शक्ति के बन्धनों से मुक्त हो जाता है और शाश्वत आनंद पाता है। सांख्य दर्शन भगवान के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं करती। अतः यह परम सत्य को जानने के लिए पर्याप्त नहीं है तथापि प्रकृति (भौतिक शक्ति) के विषय में श्रीकृष्ण इसे प्रामाणिक ग्रंथ के रूप में देखते हैं।